Friday, January 16, 2015

बुनकर / प्रेमचन्द गांधी

मकड़ियों से सीखी हमने
बुनाई की कला और वैसा ही धैर्य

कपास के बैंगनी फूलों को हमने
गर्भस्थ शिशु की तरह दुलराया
पक कर जब चटक जाते रूईफल
हमने दाई की तरह सम्हाला उन्हें
चरखे पर कातकर हमने
बना लिए

चांद जैसे गोले धागों के
धरती पर गाड़ी खूंटियाँ

शुरू हो गया ताना-बाना
यूँ धरती को ओढ़ायी हमने पहली चादर तारों की
हमारे हाथों और अंगुलियों के कौशल से बनकर
निकला जब पहला कपड़ा
इंसान को जीने का शऊर आया


पीढ़ियाँ गुज़र गईं हमारी
सूत कातते-कपड़ा बुनते 

घुमाते रहे हम शताब्दियों तक चरखा
पर नहीं घूम पाया
हमारे जीवन का चरखा
पृथ्वी को लपेटने लायक
भले ही बुन लिया हमने कपड़ा
पर ख़ुद के लिए हमें कभी नहीं हो सका नसीब
चीथड़ों से ज़्यादा 

हमारे ख़ून-पसीने की नमी पाकर
रूई बदल गई सूत में
हमारे कौशल से सूत ने 
आकार लिया कपड़े का 

हमीं ने बनाया रेशम
हमीं ने बनायी ढाका की मलमल
हमीं से सीखा गाँधी ने आज़ादी का मतलब
फिर पूरे देश ने जानी
बुनकर की अहमियत


बुनकरों के इस गाँव में अब
बुजुर्ग भी भूल चुके हैं बुनने की कला
स्त्रियाँ भूल गयी हैं चरखा चलाना
चरखा चलाते हुए गीत गाना
बुनकरों का है यह गाँव
और कोई बुनकर नहीं है यहाँ 

यहाँ झोपड़ों पर मौसमों की मार से
इस क़दर गल चुके हैं चरखे
कि अब ईंधन के लायक भी नहीं रहे और
चूल्हे की भेंट चढ़ चुका है करघा
चरखियाँ अब बच्चों के खिलौनों में भी नहीं रही 

मानव सभ्यता की प्राचीनतम कला के
हुनरमंदों के इस गाँव में अब
शहर से आते हैं कपड़े
जैसे सूर्यग्रहण के दिन
धरती से देखा जाता है सूर्य
चन्द्रमा के प्रकाश में 

चांद से रोशनी
माँगता हुआ सूरज है
बुनकरों का यह गाँव

No comments: